
गोइलकेरा : 14 अक्टूबर देवेंद्र माझी की पुण्यतिथि। देवेंद्र माझी के अनुयाईयों के लिए संकल्प व प्रतिबद्धता की प्रतिमूर्ति स्व. माझी को याद करने, उनके सपनों को पूरा करने का संकल्प दोहराने व श्रद्धांजलि अर्पित करने का दिन। आज का दिन हर साल की तरह उनके बलिदान की कहानी दोहराता है। याद दिलाता है कि उस आखिरी चिराग को जिसके बाद अंधेरा नहीं उजाला है। स्व. देवेंद्र माझी को जंगल में रहने वाले आदिवासियों की आवाज कहा जाता था। जंगल आंदोलन की श्रृंखला में कोल्हान-पोड़ाहाट का जंगल आंदोलन एक ऐतिहासिक परिघटना है। अब जब जंगल आंदोलन की बात होगी, तब-तब देवेंद्र माझी का नाम इतिहास के पन्नों का गौरव बनेगा। एक गरीब आदिवासी किसान परिवार में 15 सितंबर 1947 को देवेंद्र माझी ने जन्म लिया था। तीन भाईयों एवं छह बहनों में सबसे छोटे देवेंद्र माझी के सर से पांच वर्ष की बाल्यावस्था में ही पिता जगत माझी का साया उठ गया था। इनके भाई कालीदास माझी भी जो कि एक जुझारू स्वतंत्रता सेनानी थे, एक दुर्घटना में चल बसे। मां कुनी माझी के कमजोर कंधों पर परिवार के भरण-पोषण का भार आ गया। विषम परिस्थितियों ने बालक देवेंद्र माझी को साहसी जुझारू एवं विद्रोही स्वभाव का बना दिया। बताया जाता है कि जब वे आठवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, एक शिक्षक द्वारा कक्षा में आदिवासियों को अपशब्द कहे जाने पर इन्होंने तीव्र विरोध किया एवं बाद में प्रधानाध्यापक के समक्ष शिक्षक को गलती भी स्वीकारनी पड़ी थी। गांवों में शिक्षा, सड़क, पेयजल आदि के आंकड़े फाइलों की ही शोभा बने रहे। व्यवस्था की इस असमानता से क्षुब्ध होकर देवेंद्र माझी हायर सेंकेंड्री की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे पढ़ने का इरादा त्यागते हुए सामाजिक समानता की प्रतिस्थापना हेतु संगठन बनाकर साथियों को गोलबंद करने लगे। कोल्हान-पोड़ाहाट के चप्पे-चप्पे पर पैदल घूमते हुए लोगों को जगाया व क्रांति के लिए प्रेरित किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात ट्रेन में एक भगोड़े नक्सली असीम भट्टाचार्य से हुई। असीम भट्टाचार्य कुछ दिनों के लिए देवेंद्र माझी के घर में रहे और बाद में उन्हें अपने साथ ले गये। जहां देवेंद्र माझी को लाल किताब का अध्ययन करने का मौका मिला। किंतु उन्हें लाल आंदोलन रास नहीं आया। उन्होंने जिन उद्देश्यों को लेकर अपना सामाजिक जीवन आरंभ किया था, उनके सिद्धांत और विचारों में फर्क नजर आया। इसलिए वे चंद दिनों के बाद ही इनसे अलग होकर पुन: कोल्हान-पोड़ाहाट के लोगों के बीच चले आये। सर्वप्रथम 1969 ई. में बीड़ी श्रमिकों को संगठित कर कंपनियों के विरूद्ध आंदोलन सूत्रपात किया। जिसकी प्रतिक्रिया में बीड़ी कंपनियों के दबाव पर देवेन्द्र माझी को सर्वप्रथम 1971 में बांझीकुसुम गांव की घेरेबन्दी कर गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के पश्चात इन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया। जेल में इनकी मुलाकात शिबू सोरेन से हुई, जो अपने क्षेत्र में महाजनों के विरुद्ध आन्दोलन किए जाने की वजह से जेल में थे। इन दोनों ने संयुक्त रूप से अपने अपने क्षेत्र में झारखंड अलग प्रांत हासिल करने के लिए कार्य करने का संकल्प लिया। इधर देवेन्द्र माझी की गिरफ्तारी से क्षुब्ध बीड़ी मजदूरों ने बीड़ी से लदे तीन ट्रकों को बांझीकुसुम गांव के ही समीप जलाकर राख कर दिया। रिहा होने के बाद उन्होंने जंगलों में बसे मूलवासियों के नाम जमीन नियमित करवाने हेतु सरकार के विरुद्ध जोरदार आन्दोलन छेड़ दिया। आन्दोलन जंगल की समतल भूमि पर झाड़ियां साफ कर खेती करने को प्रेरित करने हेतु किया गया था। लेकिन स्वार्थी तत्वों ने मौके का फायदा उठाकर सैकड़ों एकड़ जंगल के पेड़ काट डाले और इसका इल्जाम देवेन्द्र माझी के सर मढ़ दिया गया। भूमिगत देवेन्द्र माझी को उस वक्त गिरफ्तार कर लिया गया जब वे अपनी बीमार वृद्धा मां से मिलने घर आए। इनके समर्थकों ने गुवा के जंगलों का सर्वेक्षण करने आए पदाधिकारियों के विरुद्ध प्रदर्शन किया। इसके जवाब में 8 सितंबर 1980 को बिहार पुलिस ने बेरहमी से गोली चलाकर दर्जन भर निरपराधों को मार डाला। तीर धनुष पर सिंहभूम में प्रतिबंध लगा दिया गया। फिर भी आंदोलन रोका नहीं जा सका। आंदोलन के नेतृत्वकर्ता देवेंद्र माझी की 14 अक्टूबर 1994 को हत्यारों ने गोईलकेरा हाट बाजार में हत्या कर दी गई। हत्यारों ने बारूदी धमाके से उनके शरीर का तो अंत कर दिया, किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं विचारों की गूंज आज भी सारंडा-कोल्हान के जंगलों में सुनाई देती है।